भारत की जनता को आतंकवाद और बाहरी देशों से ज्यादा सरकार की नीतियों से खतरा है। दो राष्ट्रीय कानून और अदालत के कई निर्देशों के बाद भी Manual Scavenging रुकने का नाम नहीं ले रहा। और इसके साथ ही नहीं रुक रहा उन सफाईकर्मियों की मौत जो सीवर और सेप्टिक टैंक को अपने हाथों से साफ करते हैं।

गांव देहात की बात छोड़िए। राजधानी दिल्ली में आज भी सफाईकर्मियों को सीवर में उतारा जा रहा है। जबकि संविधान में दो ऐसे कानून मौजूद हैं जो इसपर पूर्ण रूप से पाबंदी की बात कहते हैं।

पहला कानून 1993 में पारित हुआ जिसमें केवल सूखे शौचालयों में काम करने को समाप्त किया गया था और फिर 2013 में इससे संबंधित दूसरा कानून आया जिसमें सेप्टिक टैंकों की सफाई और रेलवे पटरियों की सफाई को भी शामिल किया गया।

लेकिन क्या केंद्र और राज्य की सरकार इन कानूनों लागू करवा पा रही है? नहीं। क्योंकि अगर ये कानून ज़मीन पर जिंदा होते तो गत शनिवार को अनिल की मौत न होती। मामला द्वारका जिले के डाबड़ी थाना इलाके कहा है। काला उर्फ सतबीर नाम के ठेकेदार ने अनिल और राजेश को सीवर की सफाई के लिए उतारा।

राजेश ने पुलिस को बताया कि उसने काला को बार-बार मना किया था कि रस्सी कमजोर है। इसलिए इस रस्सी के सहारे अनिल को सीवर में मत उतारो। लेकिन काला अड़ा रहा, उसने अनिल सीवर में उतरा। रस्सी टूट गई। अनिल सीवर में गिर गया और उसकी मौत हो गई।

भारत के महान लोकतंत्र की भेज चढ़ चुके अनिल का आठ साल का बेटा है। जब इस आठ साल के बच्चे ने शवगृह में लाश पर से चादर खिसकाई तो उसके मुंह आवाज आयी पापा… इतना कहकर वो बच्चा फफक पड़ा।

शायद यही वजह है कि बेज़वाड़ा विल्सन कहते हैं ‘सीवर में श्रमिकों की मौत सरकार और ठेकेदारों द्वारा की गई हत्याएं हैं’ बात दें कि बेज़वाड़ा विल्सन सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वे देश में मैला ढोने वाले सफाई कर्मचारियों के अधिकारों के लिए आंदोलन करते रहते हैं।

वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल कहते हैं ”जब तक सीवर साफ करना एक जाति का काम रहेगा, तब तक इस काम के लिए मशीन नहीं आएगी। भारत-पाकिस्तान सीमा से सौ गुना ज्यादा खतरनाक जगह हैं सीवर।”

जी हां, भारत-पाकिस्तान सीमा से ज्यादा खतरनाक जगह हैं सीवर और सेप्टिक टैंक। हर साल भारत-पाक बॉर्डर पर जितने जवान शहीद होते हैं, उससे कई गुणा ज्यादा सफाईकर्मी सीवर और सेप्टिक टैंक में मर जाते हैं। इससे भी अजीब बात ये है कि बॉर्डर पर शहीद होने वालों में सभी जाति, धर्म के सैनिक होते हैं।

लेकिन सीवर और सेप्टिक टैंक में मरने वाले सभी सफाईकर्मी एक ही समुदाय से आते हैं। वो समुदाय है दलित। ऐसे में क्या सरकार को बॉर्डर के जवानों से ज्यादा इन सफाईकर्मियों की चिंता नहीं करनी चाहिए?

देश में स्वच्छ भारत के नाम पर इंवेट और ड्रामा हो रहा है। अब तक करोड़ों रुपए खर्च हो चुका है स्वच्छ भारत के विज्ञापनों में। लेकिन स्वच्छ भारत के असली सैनिकों की सुरक्षा में एक रुपए खर्च नहीं किया गया है।

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