राफेल डील में हर दिन नए खुलासे हो रहें है। अब इस डील में एक और नया खुलासा हुआ है जिसमें कहा गया है कि डसॉल्ट को रिलायंस के साथ ही हाथ मिलाना अनिवार्य किया था।

क्योकिं दो ट्रेड यूनियन के दस्तावेजों से साफ़ हो गया है कैसे भारत की मौजूदा सरकार ने मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट के तहत फ़्रांस सरकार और डसॉल्ट के सामने रिलायंस का ही नाम दिया था।

दरअसल फ्रेंच ब्लॉग पोर्टल एविएशन ने फ्रांस की वेपन मैन्युफैक्चरिंग कंपनी डसॉल्ट और भारत की रिलायंस के बीच हुए डील के दस्तावेज अपनी साईट पर साझा किये हैं।

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बताया गया की फ़्रांस ने अनिल अंबानी की कंपनी के साथ एक ट्रेड ऑफ एयरोनॉटिक्स प्रमुख डसॉल्ट एविएशन के रूप में 59,000 रुपये की डील की थी।

जो ब्लॉग में शेयर किया गया है उसमें साफ लिखा है 11 मई साल 2017 को पीएम मोदी और रिलायंस का मालिक अनिल अंबानी के बीच मीटिंग होती है जिसमें जॉइंट वेंचर रिलायंस का ज़िक्र भी होता है। जिसके बाद भारत सरकार मेक इन इंडिया पॉलिसी के तहत रिलायंस को ये ठेका दिलवा देती है।

जो ब्लॉग में लिखा गया है उसमें मेक इन इंडिया की पॉलिसी की बात जोड़ी गई है।

ब्लॉग में साफ़ लिखा है कि फ़्रांस सरकार राफेल डील में रिलायंस को हिस्सेदार बनाने में किसी तरह का दबाव था या नहीं ये लोगों को समझना चाहिए।

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अब सबसे बड़ा सवाल ये है की पीएम मोदी और अनिल अंबानी के बीच 11 मिनट की बैठक में क्या तय हुआ था। क्योकिं मोदी सरकार मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट के तहत राफेल बनाने के ठेका रिलायंस को देना था तो एचएएल को मेक इन इंडिया के तहत ठेका क्यों नहीं दिया गया।

क्या है विवाद?

राफेल एक लड़ाकू विमान है। इस विमान को भारत फ्रांस से खरीद रहा है। कांग्रेस ने मोदी सरकार पर आरोप लगाया है कि मोदी सरकार ने विमान महंगी कीमत पर खरीदा है जबकि सरकार का कहना है कि यही सही कीमत है। ये भी आरोप लगाया जा रहा है कि इस डील में सरकार ने उद्योगपति अनिल अंबानी को फायदा पहुँचाया है।

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बता दें, कि इस डील की शुरुआत यूपीए शासनकाल में हुई थी। कांग्रेस का कहना है कि यूपीए सरकार में 12 दिसंबर, 2012 को 126 राफेल विमानों को 10.2 अरब अमेरिकी डॉलर (तब के 54 हज़ार करोड़ रुपये) में खरीदने का फैसला लिया गया था। इस डील में एक विमान की कीमत 526 करोड़ थी।

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