फंसे हुए कर्ज (एन.पी.ए) भारतीय बैंकों की सबसे बड़ी समस्या बन चुका है। इन कर्जों के कारण बैंकों की कमाई घट रही है, घाटा बढ़ रहा है और अब उनके लाभांश पर भी एन.पी.ए का असर दिखाई दे रहा है। लाभांश यानि सालाना फायदे में से बटने वाला हिस्सा।
सरकारी बैंकों में ज़्यादातर शेयर की मालिक सरकार ही होती है इस कारण हर साल बैंकों की कमाई में से उसे हिस्सा मिलता है। लेकिन एन.पी.ए की बढ़ती समस्या के कारण इसमें पिछले कुछ सालों में भारी गिरावट आई है।
2016-17 में पांच बैंकों ने लाभांश की घोषणा की जबकि 2014-15 में 22 सरकारी बैंकों में से 20 ने लाभांश चुकाया था। सरकारी बैंकों ने वित्त वर्ष 2015 में जहां 70 अरब रुपए लाभांश दिया था, जो पिछले वित्त वर्ष में 4.4 अरब रुपए रह गया।
यानि केवल दो ही सालों में 65.6 अरब रुपए लाभांश घटा है और 20 में से केवल पांच बैंक लाभांश देने लायक बचे हैं बाकि सब एन.पी.ए से बर्बाद होने की स्तिथि में पहुँच चुके हैं।
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एन.पी.ए बैंकों का वो लोन होता है जिसके वापस आने की उम्मीद नहीं होती, इस कर्ज़ में 73% से ज़्यादा हिस्सा उद्योगपतियों का है। अक्सर उद्योगपति बैंक से कर्ज़ लेकर खुद को दिवालिया दिखा देते हैं और उनका लोन एन.पी.ए में बदल जाता है। यही उस लोन के साथ होता है जिसे बिना चुकाए नीरव मोदी और विजय माल्या जैसे लोग देश छोड़कर भाग जाते हैं।
मोदी सरकार के कार्यकाल में भारतीय बैंकों की स्तिथि बहुत ज़्यादा बिगड़ चुकी है। सरकार पर उद्योगपतियों से पैसा ना वसूलने और उन्हें देश से भगाने का आरोप लग रहा है। सरकारी बैंकों के एन.पी.ए में भी पिछले कुछ सालों में इसी तरह का बढ़ोतरी देखी गई है।
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रिज़र्व बैंक ने बताया है कि मार्च 2018 में एनपीए 10.40 लाख करोड़ रुपए पहुँच चुका है। जबकि 2013-14 में ये 2 लाख 40 हज़ार करोड़ रुपए था। देश में लगभग 90% एन.पी.ए सरकारी बैंकों का ही है।
गौरतलब है कि लगातार सामने आ रहे बैंक घोटालों के चलते पिछले कुछ महीनों से बैंकों का घाटा बढ़ता जा रहा है। देश के 21 सरकारी बैंकों में से 15 को 2017-18 की चौथी तिमाही (जनवरी से मार्च) में 47000 करोड़ रुपए से ज्यादा का घाटा हुआ है।