सड़कें विकास की पहली पहचान कही जाती हैं। सरकार चाहे राज्य की हों या फिर केंद्र की, वो बेहतर सड़को पर ही बल देती हैं। ऐसे में अगर सड़कें ही निजी हाथों में चली जाएंगी तो सरकार के काम करने के लिए बचेगा क्या? निजीकरण करके सड़कें तो बेहतर बनाई जा सकती है मगर इससे सरकार की जवाबदेही पूरी तरह से खत्म हो जाएगी।

दरअसल द मिंट की खबर के अनुसार, बीते 17 अगस्त को प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रमुख सचिव नृपेंद्र मिश्रा ने सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय के सचिव संजीव रंजन को एक पत्र लिखा। जिसमें उन्होंने नेशनल हाइवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एनएचएआई) को उसकी कार्यकुशलता में सुधार लाने के लिए कई सुझाव दिए गए हैं।

पत्र में कहा गया है (या कहें निर्देश दिए गए) कि सड़कों के अनियोजित विस्तार की वजह से भूमि अधिग्रहण और निर्माण कार्यों में सरकार का बहुत धन खर्च हुआ है। सड़कों का निर्माण अब लाभ का काम नहीं रहा, जिससे निर्माण कंपनियां और निजी निवेशक कई परियोजनाओं को छोड़ रहे हैं।

समस्या के समाधान बताते हुए पीएमओ की तरफ से एनएचआई को दिए सुझाव में दिया गया कि प्राधिकरण को अपनी संपत्तियों से धन अर्जित करने की कोशिश करनी चाहिए। इसके लिए वह टोल टैक्स वसूली के लिए ऊंची बोली या फिर इंफ्रास्ट्रक्चर निवेश ट्रस्ट का रास्ता अपना सकती है।

इस पत्र में ये भी कहा गया कि अब सड़कों के निर्माण के लिए बिल्ड ऑपरेट ट्रांसफर (बीओटी) के आधार पर बोली की प्रक्रिया अपनाई जाए। जिसके तहत बोली जीतने वाले निजी डेवलपर सड़क निर्माण में पैसा लगाएंगे और फिर उसका चोल वसूलकर अपनी लागत और मुनाफा निकालेंगे। जिसके बाद होगा ये कि सरकार नेशनल हाइवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया सड़कें बनाने काम रोक देगी

इसके बाद वही होगा जो इन दिनों रेलवे समेत कई सरकारी कंपनियों के साथ हो रहा है ‘निजीकरण’। सरकार बड़ी सरकारी कंपनियों का निजीकरण कर अपनी ज़िम्मेदारी से पीछा छुड़ा लेना चाहती है। जिसकी चपेट में अब एनएचएआई भी आ गया। इस पत्र के बाद सड़कों का निर्माण पूरी तरह बंद हो सकता है और यह काम भी पूरी तरह निजी हाथों में चला जाएगा।

ऐसा नहीं है कि सरकार बोलियां लगवाने की प्रक्रिया पहली बार अपना रही है। इससे पहले वो रेलवे के लिए ये तरीके अपना चुकी है। इसी साल मोदी सरकार ने कुछ रूटों पर ट्रेनों का संचालन निजी कंपनियों को सौंपने के लिए बोलियां मंगवाने का निर्णय लिया जा चुका है।

प्रधानमंत्री मोदी इस बार पर हमेशा से सफाई देते रहें है कि उनकी सरकार रेलवे या किसी भी अन्य सरकारी कंपनी को पूरी तरह से निजी हाथों में नहीं सौपेगी। मगर ये भी सच्चाई है कि पिछले दिनों आर्डिनेंस फैक्ट्री बोर्ड का निगमीकरण कर रक्षा जैसे अहम क्षेत्र का निजीकरण करने का फैसला लिया गया (वो भी चुपके से)।

ऐसे में सवाल ये है कि अगर सरकार अपनी सभी कमाऊ कंपनियों को निजी हाथों में सौप देगी तो उसकी ज़िम्मेदारी क्या होगी सिर्फ बेसुरे भाषण देना? लगता है जो सुनहरे सपने सरकार ने जनता को दिखाए हैं उसे पूरा करने के लिए क्या आखिरी रास्ता निजीकरण का ही है।

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